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रख्माबाई: स्त्री अधिकार और कानून

सुधीर चंद्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14229
आईएसबीएन :9788126723379

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एक व्यक्ति के रूप में स्त्री का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था।

रख्माबाई के खिलाफ दादाजी के मुकदमे में स्त्रियों की स्थिति को लेकर एक पूर्वग्रह छिपा हुआ था। इसकी क्रूरता सुनवाई के दौरान कभी-कभार ही उभरकर सामने आई। लेकिन जब आई तो दिखा गई कि एक व्यक्ति के रूप में स्त्री का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। ऐसे ही एक अवसर पर, रख्माबाई पर दादाजी के अधिकार का दावा करते हुए वीकाजी ने कहा, ‘पत्नी अपने पति का एक अंग होती है, इसलिए उसे उसके साथ ही रहना चाहिए।’ यह उस तरह की बात थी जिसका मजाक उड़ाकर बेली यूरोपीय श्रेष्ठता से जुड़ा अपना दम्भ जता सकते थे। उन्होंने कहा, ‘आप इस नियम को भावनगर के ठाकुर पर कैसे लागू करेंगे, जिन्होंने राजपूतों की परम्परा के अनुसार एक ही दिन में चार स्त्रियों के साथ विवाह किया?’ वीकाजी ने बेधड़क जवाब दिया, ‘तो फिर ठाकुर की अस्मिता को चार हिस्सों में विभाजित माना जाएगा।’ हिन्दू कानून की इस व्याख्या पर अदालत में जो अट्टहास हुआ उसे समझा जा सकता है। लेकिन बेली जैसों के इस विश्वास को समझना मुश्किल है कि औरतों के प्रति उनका नज़रिया उस नज़रिए से बेहतर था जिसको लेकर यह अट्टहास हुआ था। ग्रेटना ग्रीन विवाहों की तरह उन्हें यह भी याद होना चाहिए था कि ‘सबसम्पशन’ (सन्निवेश) अंग्रेजी पारिवारिक जीवन की धुरी हुआ करता था। बेली भूल गए थे कि सन्निवेश के इसी सिद्धान्त का एक अवशेष अंग्रेजी कानून की एक महत्त्वपूर्ण मान्यता के रूप में अब भी मौजूद था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पत्नी इस सीमा तक अपने पति का अभिन्न अंग थी कि उसे अपने पति के खिलाफ दीवानी अदालत में मुकदमा करने का भी अधिकार नहीं था।

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